Saturday 26 October 2019

Sohrai

   सोहराई भारतीय राज्यों झारखंड , बिहार , छत्तीसगढ़ , ओडिशा और पश्चिम बंगाल का त्योहार है । यह एक फसल उत्सव है जो सर्दियों के फसल के मौसम की शुरुआत में आयोजित किया जाता है। यह झारखंड के सदान  और आदिवासी  द्वारा मनाया जाता है 
   यह अक्टूबर-नवंबर के महीने में  कार्तिक के अमावस्या को मनाया जाता है । कुछ क्षेत्रों में इसे मध्य जनवरी में भी मनाया जाता है। कार्तिक आमवस्या को जब हिन्दू , बौद्ध और जैन धर्मावलम्बी दीपोत्सव मनाते है ,तब यहां सोहराई मनाया जाता है। इसमें सभी पशुओं को नहलाया - धुलाया और गौशाला को सजाया जाता है। गौशाला के मार्ग में रंगों से अल्पना बनाकर पशुओ को  उसमे आदर सहित प्रवेश कराया जाता है। 

   रात्रि में उनके सींगों पर तेल और सिंदूर लगाते है और काली मुर्गी या सूअर की बलि देते है। अगले दिन गौशाला जाकर रंगुआ मुर्गे ( बांगने  वाला मुर्गा,) की बलि दी जाती है इसके बाद हंडिया का तपान दिया जाता है। पशुओं के लिए अनाजों से तैयार ' पखवा ' खिलाया जाता है और इसे लोगों द्वारा प्रसाद रूप में खाया जाता है। दोपहर को बरध खूंटा( पशु दौड़ ) को आयोजन किया जाता है। 



Thursday 17 October 2019

First Neurosurgeon : Jivaka

      जिवाका ( पाली : जिवाका कोमराभाका ; संस्कृत : जिवाका कुम्रभट्ट )  बुद्ध और भारतीय राजा बिम्बिसार के निजी चिकित्सक ( संस्कृत : वैद्य ) थे । वह 5 वीं शताब्दी ईसा पूर्व में , वर्तमान राजगीर , राजगृह में रहता था। कभी-कभी "मेडिसिन किंग" ( पिनयिन : यी वैंग ) के रूप में वर्णित  वह एक मॉडल हीलर के रूप में एशिया में प्रसिद्ध खातों में प्रमुखता से दिखाते हैं, और कई एशियाई देशों में पारंपरिक चिकित्सकों द्वारा उन्हें सम्मानित किया जाता है।
       ग्रंथों में, जिवाका को जटिल चिकित्सा प्रक्रियाओं का प्रदर्शन करते हुए दिखाया गया है, जिनमें मस्तिष्क सर्जरी के रूप में व्याख्या की जा सकती है। विद्वान इस बहस में हैं कि इन चित्रणों का ऐतिहासिक मूल्य किस सीमा तक है। बावजूद, जिवाका को पूरे एशियाई इतिहास में बौद्धों द्वारा सम्मानित किया जाता है, और कुछ हद तक एक चिकित्सक और बौद्ध संत के रूप में बौद्ध धर्म के बाहर चिकित्सकों द्वारा। भारत और चीन में कई मध्यकालीन चिकित्सा ग्रंथों और प्रक्रियाओं के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराया जाता है। वर्तमान दिन तक, जिक्का को भारतीयों और थाई द्वारा पारंपरिक चिकित्सा के संरक्षक के रूप में सम्मानित किया जाता है, और थाई पारंपरिक चिकित्सा से जुड़े सभी समारोहों में उनकी केंद्रीय भूमिका होती है। इसके अलावा, बौद्ध धर्म को मान्यता देने और उसे वैध बनाने में मदद करने के लिए जिक्का की महान व्यक्ति की महत्वपूर्ण भूमिका थी। जिवाका के खातों के कुछ विवरण स्थानीय मिलियनों को फिट करने के लिए समायोजित किए गए थे, जिसमें वे पारित किए गए थे। जिवाकर्मा मठ की पहचान चीनी तीर्थयात्री जुआन ज़ांग ने 7 वीं शताब्दी में की थी और इसकी खुदाई 19 वीं शताब्दी में की गई थी। वर्तमान में, यह पुरातात्विक अवशेषों के साथ सबसे पुराने बौद्ध मठों में से एक है जो अभी भी अस्तित्व में है।
जिवाका कई बौद्धों और पारंपरिक चिकित्सकों के लिए एक आइकन और प्रेरणा का स्रोत था।  जिवाका का आंकड़ा प्राचीन ग्रंथों में आध्यात्मिकता के साथ-साथ चिकित्सा के क्षेत्र में बौद्ध धर्म की श्रेष्ठता के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया गया है। Jīvaka सूत्र और Mūlasarvāstivāda संस्करण का वर्णन है कि जब Jīvaka बुद्ध को पूरा करती है, बाद में एक बयान करता है कि "मैं आंतरिक बीमारियों का इलाज है, आप बाहरी रोगों के इलाज", शब्द का इलाज ( पिनयिन : zhi ) भी अर्थ 'पर राज्य करने इस संदर्भ में '।  accounts ] मध्ययुगीन काल के दौरान, जिवाका के बारे में खातों का इस्तेमाल चिकित्सा पद्धतियों को वैध बनाने के लिए किया गया था। जल्दी बौद्ध ग्रंथों जो चीनी में अनुवाद किया गया है में, Jīvaka था deified और के रूप में बुद्ध और के लिए इस्तेमाल किया समान शब्दावली में वर्णित बोधिसत्व । उन्हें "मेडिसिन किंग" कहा जाने लगा, यह शब्द कई प्रसिद्ध चीनी चिकित्सकों के लिए इस्तेमाल किया गया था।  इस बात के प्रमाण हैं कि तांग राजवंश (century वीं -१० वीं शताब्दी) के दौरान, जिवाका की पूजा सिल्क रोड पर बच्चों के स्वास्थ्य के संरक्षक देवता के रूप में की गई थी।  आज, जिक्का को भारतीयों द्वारा पारंपरिक उपचार के संरक्षक के रूप में देखा जाता है,और इसे थाई लोग पारंपरिक थाई मालिश और चिकित्सा के निर्माता के रूप में देखते हैं । थाई लोग अभी भी उन्हें उपचार संबंधी बीमारियों में सहायता करने के लिए कहते हैं, और वे लगभग सभी समारोह में केंद्रीय भूमिका निभाते हैं जो पारंपरिक थाई चिकित्सा का हिस्सा है। जिवाका की थाईलैंड की कथित यात्रा के बारे में कई कहानियाँ मौजूद हैं


Friday 4 October 2019

Bharatiya Dalit Sahitya Academi


    

   भारतीय दलित साहित्य अकादमी की स्थापना 1984 में तत्कालीन डीआई द्वारा की गई थी। अन्याय, असमानता और अमानवीय व्यवहार के अंधेरे को कम करने के लिए बाबा साहब डॉ. बीआर अंबेडकर के अधूरे सपने को पूरा करने के लिए प्रधानमंत्री बाबू जगजीवन राम। और इसकी एकमात्र जिम्मेदारी संस्थापक अध्यक्ष के रूप में डॉ. एसपी सुमनक्षार को दी गई।
    अकादमी ने अपनी स्थापना के बाद पिछले 28 वर्षों के दौरान देश के हर कोने में अपनी गतिविधियों को बढ़ावा दिया है। 35 राज्यों में, शाखाएँ राज्य से ज़िलों में तहसीलों तक फैले एक शुद्ध कार्य के साथ घास-मूल को अवरुद्ध करने के लिए काम कर रही हैं, लगभग पाँच लाख रचनात्मक और सक्रिय विचारक, सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक, विद्वान, पत्रकार, इतिहासकार, जो लगे हुए हैं दलित साहित्य और सार्वजनिक सभा, सम्मेलनों, संगोष्ठियों, सेमिनारों, रैलियों, खेल और लेखन प्रतियोगिताओं, प्रदर्शनियों के माध्यम से दलित जनता, कमजोर वर्गों और देश के दबे-कुचले लोगों के बीच जागृति फैलाना। डॉ। अम्बेडकर स्टडी सर्कल, लाइब्रेरी एंड रीडिंग रूम, यूथ गाइड सेंटर, स्ट्रीट प्ले, ड्रामा, डिस्कशन और डिबेट्स आदि। लगभग 30 हजार ऐसे कार्यक्रम अकादेमी की विभिन्न शाखाओं द्वारा आयोजित किए जा चुके हैं।
      अकादेमी, जो मूल रूप से एक गैर-राजनीतिक संस्था है, ने मीडिया के माध्यम से लेखकों, कवियों, नाटककारों, पत्रकारों, उपन्यासकारों, कहानीकारों, साहित्यकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं आदि को मार्गदर्शन प्रदान करके वैज्ञानिक तरीके से दलित जागृति आंदोलन को संभालने की योजना बनाई है। कार्य की दुकान, सेमिनार, सम्मेलन और बैठकें विचारों का आदान-प्रदान, चर्चा आयोजित करना, शोध पत्र लिखना आदि और मान्यता और पहचान। और उन्हें डॉ। अंबेडकर, महात्मा जोतिबा फुले और भगवान बुद्ध के नाम पर विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित किया।

अकादमी द्वारा स्थापित पुरस्कार
अकादमी ने प्रत्येक वर्ष अपने राष्ट्रीय सम्मेलन में उत्कृष्ट योगदान के लिए विद्वानों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को सम्मानित करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर निम्नलिखित पुरस्कारों की स्थापना की है: -
1. डॉ. अंबेडकर अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार
2. डॉ. अम्बेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार
3. डॉ. अंबेडकर प्रतिष्ठित सेवा पुरस्कार
4. डॉ. अम्बेडकर फैलोशिप अवार्ड।

गुरुमत राष्ट्रीय पुरस्कार
1. भगवान बुद्ध राष्ट्रीय पुरस्कार।
2. गुरु रविदास राष्ट्रीय पुरस्कार।
3. संत कबीर राष्ट्रीय पुरस्कार।
4. महर्षि वाल्मीकि राष्ट्रीय पुरस्कार।
5. गुरु घासीदास राष्ट्रीय पुरस्कार।

राष्ट्रीय वीरता पुरस्कार
1. वीर एकलव्य राष्ट्रीय पुरस्कार
2. महासैनी बिरसा मुंडा राष्ट्रीय पुरस्कार।
3. वीरांगना झलकारी बाई राष्ट्रीय पुरस्कार।
4. शहीद उधम सिंह राष्ट्रीय पुरस्कार।
5. महात्मा ज्योतिबा फुले राष्ट्रीय पुरस्कार।

कला- संस्कृति राष्ट्रीय पुरस्कार
1. डॉ। अम्बेडकर कलश्री राष्ट्रीय पुरस्कार।
2. डॉ। अंबेडकर सेवाश्री राष्ट्रीय पुरस्कार।
3. डॉ। अंबेडकर साहित्यश्री राष्ट्रीय पुरस्कार।
4. डॉ। अम्बेडकर महामहिम राष्ट्रीय पुरस्कार।
बीडीएसए में अपस्टिल नाउ द्वारा प्रदान किए गए 270 डॉ. अंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार हैं। 540 डॉ. अम्बेडकर प्रतिष्ठित सेवा पुरस्कार और 12000 डॉ. अम्बेडकर फैलोशिप अवार्ड और 200 अन्य गौरवशाली विभिन्न पुरस्कार अपने-अपने क्षेत्रों में अपनी सेवाओं के लिए प्रमुख विद्वानों, लेखकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों आदि को प्रदान करते हैं।




Wednesday 2 October 2019

Gandhi & Jharkhand

       गाँधी जी का राष्ट्रिय आंदोलन में प्रवेश 1919 ई में हुआ। गांधीजी का अहिंसा पर आधारित असहयोग आंदोलन का समर्थन छोटानागपुर के लोगों ने भी किया। छोटानागपुर खास के टाना भगतों ने जो जतरा भगत के नेतृत्व में 1914 ई से पुनरुत्थानवादी आंदोलन चला रहे थे,1920 ई में गाँधी द्वारा प्रारंभ किये गए असहयोग आंदोलन में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया।

       1918 ई में रॉलेक्ट एक्ट का पुरे देश के साथ - साथ झारखण्ड में भी विरोध किया गया। 1925 में गांधीजी ने झारखण्ड की यात्रा की इस समय गांधीजी ने हज़ारीबाग के संत कोलम्बस कॉलेज में सभा की थी। 1925 ई में गांधीजी  सी एफ एंडूज के अनुरोध पर जमशेदपुर आये थे.                                                                           
       सविनय अवज्ञा आंदोलन के समय पुरे देश के साथ-साथ झारखण्ड में भी कुछ घटनाओं जैसे 1928 ई में साइमन कमीशन का विरोध , 1928 ई. का नेहरू रिपोर्ट ,1929 ई. के लाहौर कांग्रेस अधिवेशन में पूर्ण स्वराज की घोसणा ,गांधीजी द्वारा लार्ड इरविन के सामने रखे गए 11 सूत्री मांग को अस्वीकार कर देना आदि ने एक बड़े आंदोलन की भूमिका तैयार कर दी थी। 6 अप्रैल 1930 ई. को दांडी के समुद्र तट पर नमक बनाकर सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत गांधीजी ने की। 13 अप्रैल को झारखण्ड में भी आंदोलनकारियों ने अनेक स्थानों पर नमक बनाकर नमक कानून को तोड़ा।                                                                                                    
       हज़ारीबाग के मोपना मांझी तथा चेतन महतो की मौत पटना कैम्प जेल में हो गयी थी, जिसके विरोध में हज़ारीबाग में 6 मार्च , 1932 ई को विरोध सभा का आयोजन किया गया था। नमक सत्याग्रह में हज़ारीबाग क्षेत में    संथाल जनजाति ने उल्लेखनीय भूमिका निभाई। 8 मार्च को डुमरी में संथालों सभा हुयी थी। संथाल        आंदोलनकारियों का नेतृत्व गोमिया के बोरोगेरा ग्राम का बंगम मांझी कर रहा था.                
      गांधीजी ने 1940 में व्यक्तिगत सत्याग्रह आंदोलन प्रारम्भ किया था। व्यक्तिगत सत्याग्रह के समय 1940 में गांधीजी अंतिम बार रांची आये थे तथा निवारण बाबू से मिलने निवारणपुर गए थे ,जहां उन्होंने एक सभा भी की थी।                                                                                                                             
       1942 ई के ' भारत छोडो आंदोलन ' में भी झारखण्ड में लोगों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। 14 अगस्त , 1942 को रांची के जिला स्कूल के विद्यार्थियों ने जुलूस निकालकर भारत छोडो आंदोलन की शुरुआत की। 18 अगस्त को टाना भगतों ने विशुनपुर थाना को जला दिया। आंदोलनकारियों ने 22 अगस्त को इटकी तथा टांगर बसली के बिच रेल की पटरी उखाड़ दी। अबरख की खानों में काम करने वाले श्रमिकों ने झुमरी तिलैया में जुलूस निकाला , जिसमे 113 लोग गिरफ्तार किये गए डोमचांच में भी एक जुलूस निकाला गया।,जिस पर पुलिस ने गोली चलाई जिसमे 2 व्यक्ति मारे गए तथा 22 लोग घायल हुए।                                                                  

Tuesday 1 October 2019

Bouddh Dhamm - jharkhand

      बौद्ध धर्म का झारखण्ड क्षेत्र से गहरा संबंध है। डॉ वीरोत्तम ने अपनी रचना ' झारखण्ड :इतिहास एवं संस्कृति ' में गौतम बुद्ध की जन्म भूमि झारखण्ड को बताया है ,जिसे तथ्य नकारते है। इसका प्रमाण पलामू के मुर्तिया गांव से प्राप्त सिंह मस्तक है। यह अवशेष वर्तमान में रांची विश्वविद्यालय संग्रहालय में सुरक्षित है तथा साँची में स्थित बौद्ध स्तूप पर उत्कीर्ण सिंह मस्तिष्क से काफी समानता रखता है। धनबाद जिले में करुआ ग्राम का बौद्ध स्तूप ,स्वर्णरेखा नदी के तट पर डालमी एवं कंसाई नदी के तट पर बुद्धपुर में बौद्ध धर्म से सम्बंधित अनेक अवशेष पाए गए है।
     


https://pnssk.blogspot.com/2019/09/blog-post_25.html
झारखण्ड और पश्चिम बंगाल के सीमा क्षेत्रों पर लाथोंटोंगरी पहाड़ी में बेंग्लर ने चैत्य तथा पकबिरा में आर सी बोकन ने बौद्ध खंडहर की खोज की है। चैत्य बौद्ध धर्म का पवित्र पूजा स्थल होता है। 1919 ई में ए शास्त्री ने बाग में काले चिकने पत्थर की बुद्ध मूर्ति की खोज की थी, जिसकी दोनों भुजायँ टूटी हुई है। 
            खूंटी जिले के वेलवादाग ग्राम से बौद्ध विहार का अवशेष प्राप्त हुआ है। यहां से प्राप्त ईंट साँची के स्तूप में प्रयुक्त ईंट एवं मौर्यकालीन ईंटों के समान है। गुमला जिले के कटूंगा गांव ,पूर्वी सिंघभूम के भुला ग्राम से बुद्ध की प्रतिमा तथा पूर्वी सिंहभूम के ईचागढ़ से स्कूल के दीवार से महासिरि तारा की एक प्रतिमा प्राप्त हुई है ,1984 से यह प्रतिमा रांची संग्रहालय में सुरक्षित है। राजमहल क्षेत्र स्थित कांकजोल से बुद्ध की मूर्ति की खोज कनिंघम द्वारा की गई है। छात्र जिले के ईटखोरी में भद्रकाली मंदिर परिसर से बुद्ध की चार प्रतिमायें प्राप्त हुई है। ये प्रतिमाएं सातवीं सदी की है। तथा विभिन्न मुद्राओ में है। ये मूर्तियां बालू पत्थर की है, जो हर्षवर्द्धन कालीन प्रतीत होती है। गौतम बुद्ध बोधगया में ज्ञान प्राप्ति (बोधत्व ) के बाद 45 वर्षों तक जिन क्षेत्रों में ज्ञान का उपदेश देते रहे उनमे झारखण्ड क्षेत्र भी शामिल था। 
             कुषाण वंश के सर्वश्रेष्ठ शासक कनिष्क के सिक्के रांची के आसपास के क्षेत्र से प्राप्त हुआ है। महायान बौद्धधर्म को प्रश्रय देने वाले शासक कनिष्क ने लगभग सम्पूर्ण बिहार - झारखण्ड क्षेत्र पर शासन स्थापित कर लिया था। इस तरह कनिष्क के समय तक झारखण्ड क्षेत्र में बौद्धधर्म फल - फूल रहा था ,जब गुप्त वंश के समय विशेषकर समुद्रकाल के काल में वैष्णव धर्म का उद्धभव एवं प्रभाव इस क्षेत्र में पड़ने लगा तब बौद्ध धर्म का प्रभाव शिथिल होने लगा। गुप्त वंश के पतन के बाद जब इस क्षेत्र पर कट्टर शैव शासक बंगाल के शशांक का शासन स्थापित हुआ तब उसने कई बौद्ध स्थलों को नष्ट कर दिया। 
      पुना बौद्ध धर्म के संरक्षक शासकों हर्षवर्धन एवं पाल वंश के समय झारखण्ड क्षेत्र पर बौद्ध धर्म के प्रभाव में वृद्धि हुई।