Friday 15 November 2019

धरती आबा - बिरसा मुंडा

   बिरसा मुंडा भारत के एक महान आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी और लोक नायक थे, जिनकी ख्याति अंग्रेजो के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम मे काफी हुई थी। उन्होंने ब्रिटिश शासन, जमींदारों और महाजनों के विरूद्ध आंदोलन किया, जिसे बिरसा उलगुलान के नाम से जाना जाता है । केवल 25 वर्ष के जीवन मे उन्होंने इतने मुकाम हासिल कर लिए थे कि आज भी भारत की जनता उन्हें याद करती है और भारतीय संसद में एक मात्र आदिवासी नेता बिरसा मुंडा का चित्र टंगा हुया है ।
    बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर, 1875 को खूंटी जिले के उलिहातु गाँव मे हुआ था । बिरसा के पिता का नाम सुगना मुंडा और माता का नाम करमी हटू था ।
 
  
   उन्होंने अंग्रेज सरकार के खिलाफ नारा दिया ' रानी का शासन खत्म करो और हमारा साम्राज्य स्थापित करो '। अंग्रेजो ने आदिवासी नीति मे बदलाव किया जिससे                आदिवासियों को काफी नुकसान हुआ था । 1895 मे लगान माफी के लिए उन्होंने आदिवासियों एवं स्थानीय लोगों का नेतृत्व कर अंग्रेजो के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया था । वे ' बिरसायत संप्रदाय ' के प्रवर्तक थे । बिरसा मुंडा ने सन् 1900 मे अंग्रेजो के विरुद्ध विद्रोह करने की घोषणा करते हुए कहा --" हम ब्रिटिश शासन तंत्र के विरुद्ध विद्रोह करने की घोषणा करते हैं और कभी अंग्रेजो के नियमों का पालन नहीं करेंगे "। अंग्रेज सरकार ने बिरसा की गिरफ्तारी पर 500 रूपए का इनाम रखा था ।
  अंग्रेजी सरकार ने विद्रोह का दमन करने के लिए 3 फरवरी 1900 को मुंडा को गिरफ्तार कर लिया, जब वे अपनी गुरिल्ला सेना के साथ जंगल मे सो रहे थे । उस समय 460 आदिवासियों को भी उनके साथ गिरफ्तार किया गया । 9 जून, 1900 को रांची जेल में उनकी रहस्यमय तरीके से मौत हो गई और अंग्रेजी सरकार ने मौत का कारण हैजा बताया था, जबकि उनमें हैजा का कोई लक्षण नहीं थे । केवल 25 वर्ष की उम्र मे उन्होंने ऐसा काम कर दिया कि सभी भारतीय उनको याद करते हैं ।

Tuesday 12 November 2019

Lugu Buru Mahoutsav

टीटीपीएस ललपनिया के पास स्थित लुगुबुरू घांताबारी, "संथालियों" आदिवासियों के एक छोटे से गाँव, गोमिया ब्लॉक से लगभग 16 किलोमीटर दूर, संथाल समुदाय का गौरव है, जिसे होर-डिशोम में सोसनन जुग कहा जाता है। लुगुबुरू घंटाबरी धर्मगढ़ वर्ष 2000 में फिर से स्थापित किया गया था।
लुगु बुरु घांटा बारी में आदिवासी संगठनों द्वारा हर साल मेला  आयोजित किया जाता है, उस स्थान के रूप में प्रसिद्ध है जहाँ आदिवासी गुरु लुगु बुरु ने अपने शिष्यों के साथ 12 साल ध्यान में बिताए थे, इस  आयोजन को  झारखंड सरकार ने  राज्योत्सव का दर्जा दिया है।

लुगु बुरु, को  संथाल  अपना संस्थापक पिता मानते हैं, । मुख्य कार्यक्रम, प्रार्थना और धार्मिक प्रवचन, लुगु पहाड़ियों के ऊपर एक गुफा के पास होते हैं, जो कि 7 किमी की खड़ी चढ़ाई है।


, श्रीलंका, बांग्लादेश और नेपाल के साथ-साथ भारत के विभिन्न हिस्सों जैसे ओडिशा, बंगाल, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और केरल से और झारखंड के भीतर से जनजातियों के प्रतिनिधि आते है ।  प्रतिभागियों में झारखंड के बाहर के कई आदिवासी धार्मिक नेता शामिल होते है ।

Monday 4 November 2019

Jharkhand Vidhansabha

     भारतीय संविधान के अनुच्छेद -170 से सम्बंधित राज्य में एक विधानसभा के होने का प्रावधान है ,जिसके सदस्यों का निर्वाचन राज्य के प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों से प्रत्यक्ष मताधिकार द्वारा किया जाता है। राज्य के विधानसभा के निर्वाचन क्षेत्र का निर्धारण परिसीमन आयोग के द्वारा किया जाता है। वर्तमान झारखण्ड में विधानसभा सदस्यों की संख्या 82 है , जिसमें 81 सदस्यों का निर्वाचन वयस्क मताधिकार के आधार पर तथा 1 सदस्य का मनोयन राज्यपाल द्वारा एंग्लो इंडियन समुदाय के प्रतिनिधि के रूप में किया जाता है। विधानसभा का कार्यकाल 5 वर्ष का होता है , परन्तु राज्य में आपात स्थिति लागू होने पर संसद के द्वारा इसकी अवधि माह तक बढ़ाई जा सकती है। इसे पुनः छह माह और बढ़ाया जा सकता है। इस तरह से इसका कार्यकाल 1 वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है। यह प्रावधान भारतीय संविधान के अनुच्छेद -172 (1) में वर्णित है। किसी दल के बहुमत नहीं होने पर या सरकार के बहुमत खो देने की स्थिति में राज्यपाल के द्वारा विधानसभा को उसके कार्यकाल पूर्ण होने से पहले भी विघटित किया जा सकता है। राज्यपाल के द्वारा विधानसभा का अधिवेशन बुलाया जाता है ,परन्तु विधानसभा के दो अधिवेशनों के बीच में अधिकतम छह महीने का अंतर् होना चाहिए। झारखण्ड विधानसभा की कुल 82 सीटों में से अनुसूचित जनजाति के लिए 28, अनुसूचित जाति के लिए 9 सीटें आरक्षित हैं तथा शेष 44 सीट सामान्य श्रेणी की हैं।

     विधानसभा सदस्य बनने की योग्यताएँ -
  • वह भारत का नागरिक हो एवं कम से कम 25 वर्ष की उम्र का हो। 
  • वह भारत सरकार या किसी राज्य सरकार के अधीन लाभ के पद पर न हो। 
  • वह दिवालिया या पागल न हो।                                                  

      विधानसभा अध्यक्ष  एवं उपाध्यक्ष 
   भारतीय संविधान के अनुच्छेद -178 के अनुसार प्रत्येक राज्य की विधानसभा के लिए एक अध्यक्ष एवं एक उपाध्यक्ष का पद निर्धारण है। इनका चुनाव सम्बंधित विधानसभा के सदस्यों के द्वारा किया जाता है। लोकसभा अध्यक्ष की भांति विधानसभा अध्य्क्ष विधानसभा की कार्रवाई चलाने का अधिकारी होता है ,अध्यक्ष की अनुपस्थिति में विधानसभा को  उपाध्यक्ष कार्रवाई चलाते है। 

विधानसभा अध्यक्ष के अधिकार 
  • वह राज्यपाल का सन्देश विधानसभा में तथा विधानसभा का निर्णय राज्यपाल को देता है। 
  • किसी विधेयक में मत बराबर होने की स्थिति में विधानसभा अध्यक्ष विधेयक के लिए निर्णायक मत देते है। 
  • कोई विधेयक दोनों सदन में पास हो जाने के बाद अध्यक्ष उस विधेयक पर अपने हस्ताक्षर करते हैं। 
विधानसभा सदस्यों का अधिकार 
      संविधान के अनुच्छेद -194 के अनुसार किसी विधानसभा सदस्य ( विधायक ) को सदन में अपनी बात अध्यक्ष की पूर्व अनुमति से रखने का अधिकार है। सदन में विधायकों द्वारा दिय गए किसी वक्तव्य के विरुद्ध किसी भी न्यायालय में कोई वाद नहीं चलाया जा सकता, लेकिन सदस्यों को विधानसभा के अंदर न्यायपालिका की आलोचना करने का अधिकार नहीं है। 

विधानसभा के कार्य 
    विधायी  कार्य -विधानसभा को राज्य सूचि तथा समवर्ती सूचि के सभी विषयों पर कानून बनाने का अधिकार है। 
   वित्तीय कार्य -धन विधेयक केवल विधानसभा में ही पेश हो सकता है। एक बार धन विधेयक विधानसभा में पारित होने के बाद विधानपरिषद में उसे पेश किया जाता है। विधानपरिषद को 14 दिन के अंदर पास करना होता है ,नहीं तो स्वता पारित मन लिया जाता है। राज्यपाल को धन विधेयक पर अपनी स्वीकृति देनी ही पड़ती है। 
संवैधानिक कार्य -संविधान के कुछ अनुच्छेदों में संशोधन करने में भारतीय संसद को संशोधन करने के लिए देश के आधे राज्यों के विधानमंडलों की स्वीकृति आवश्यक होती है। विधानसभा के निर्वाचित सदस्यों को राष्ट्रपति के चुनाव में भाग लेने का अधिकार है। राज्यसभा में राज्य के प्रतिनिधिओं के चुनाव में विधानसभा के सदस्य ही भाग लेते है। राज्य की मंत्री परिषद विधानसभा के लिए उत्तरदाई होती है। विधानसभा किसी भी व्यक्ति को सदन के विशेषाधिकारों का उल्लंघन करने पर दंड दे सकती है। 

Friday 1 November 2019

Code of Conduct

किसी भी राज्य में चुनाव से पहले एक अधिसूचना जारी की जाती है। इसके बाद उस राज्य में ‘आदर्श आचार संहिता’ लागू हो जाती है और नतीजे आने तक जारी रहती है। मज़े की बात यह है कि आम मतदाता तो यह जानता तक नहीं कि आखिर ‘आदर्श आचार संहिता’ किस बला का नाम है। ऐसे में बहुत से सवाल मुँह उठाकर खड़े हो जाते हैं। जैसे- आदर्श आचार संहिता क्या होती है? इसे कौन लागू करता है? इसके नियम-कायदे क्या हैं? इसे लागू करने का मकसद क्या है? इनके अलावा इस मुद्दे से जुड़ी कई और जिज्ञासाएँ भी हैं, जिनके बारे में हर जागरूक मतदाता को जानकारी होनी चाहिये।

क्या है आदर्श आचार संहिता?


मुक्त और निष्पक्ष चुनाव किसी भी लोकतंत्र की बुनियाद होती है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में चुनावों को एक उत्सव जैसा माना जाता है और सभी सियासी दल तथा वोटर्स मिलकर इस उत्सव में हिस्सा लेते हैं। चुनावों की इस आपाधापी में मैदान में उतरे उम्मीदवार अपने पक्ष में हवा बनाने के लिये सभी तरह के हथकंडे आजमाते हैं। ऐसे माहौल में सभी उम्मीदवार और सभी राजनीतिक दल वोटर्स के बीच जाते हैं। ऐसे में अपनी नीतियों और कार्यक्रमों को रखने के लिये सभी को बराबर का मौका देना एक बड़ी चुनौती बन जाता है, लेकिन आदर्श आचार संहिता इस चुनौती को कुछ हद तक कम करती है।
  • चुनाव की तारीख का ऐलान होते ही यह लागू हो जाती है और नतीजे आने तक जारी रहती है।
  • दरअसल ये वो दिशा-निर्देश हैं, जिन्हें सभी राजनीतिक पार्टियों को मानना होता है। इनका मकसद चुनाव प्रचार अभियान को निष्पक्ष एवं साफ-सुथरा बनाना और सत्ताधारी राजनीतिक दलों को गलत फायदा उठाने से रोकना है। साथ ही सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग रोकना भी आदर्श आचार संहिता के मकसदों में शामिल है।
  • आदर्श आचार संहिता को राजनीतिक दलों और चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों के लिये आचरण एवं व्यवहार का पैरामीटर माना जाता है।
  • दिलचस्प बात यह है कि आदर्श आचार संहिता किसी कानून के तहत नहीं बनी है। यह सभी राजनीतिक दलों की सहमति से बनी और विकसित हुई है।
  • सबसे पहले 1960 में केरल विधानसभा चुनाव के दौरान आदर्श आचार संहिता के तहत बताया गया कि क्या करें और क्या न करें।
  • 1962 के लोकसभा आम चुनाव में पहली बार चुनाव आयोग ने इस संहिता को सभी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों में वितरित किया। इसके बाद 1967 के लोकसभा और विधानसभा के चुनावों में पहली बार राज्य सरकारों से आग्रह किया गया कि वे राजनीतिक दलों से इसका अनुपालन करने को कहें और कमोबेश ऐसा हुआ भी। इसके बाद से लगभग सभी चुनावों में आदर्श आचार संहिता का पालन कमोबेश होता रहा है।
  • गौरतलब यह भी है कि चुनाव आयोग समय-समय पर आदर्श आचार संहिता को लेकर राजनीतिक दलों से चर्चा करता रहता है, ताकि इसमें सुधार की प्रक्रिया बराबर चलती रहे। 

आदर्श आचार संहिता के लिये अपनाई जा रही एडवांस तकनीकें


जब डिजिटलीकरण और हाई-टेक होने का दौर चल रहा हो तो भला चुनाव आयोग क्यों पीछे रहता। आदर्श आचार संहिता को और यूज़र-फ्रेंडली बनाने के लिये कुछ समय पहले चुनाव आयोग ने ‘cVIGIL’ एप लॉन्च किया। तेलंगाना, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, मिज़ोरम और राजस्थान के हालिया विधानसभा चुनावों में इसका इस्तेमाल हो रहा है।
  • cVIGIL के ज़रिये चुनाव वाले राज्यों में कोई भी व्यक्ति आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन की रिपोर्ट कर सकता है। इसके लिये उल्लंघन के दृश्य वाली केवल एक फोटो या अधिकतम दो मिनट की अवधि का वीडियो रिकॉर्ड करके अपलोड करना होता है।
  • उल्लंघन कहाँ हुआ है, इसकी जानकारी GPS के ज़रिये ऑटोमेटिकली संबंधित अधिकारियों को मिल जाती है।
  • शिकायतकर्त्ता की पहचान गोपनीय रखते हुए रिपोर्ट के लिये यूनीक आईडी दी जाती है। यदि शिकायत सही पाई जाती है तो एक निश्चित समय के भीतर कार्रवाई की जाती है।
यह तो बात हुई इस एप के फायदों की, लेकिन हम सब यह भी जानते हैं कि नफे के साथ नुकसान भी जुड़ा होता है। इसी के मद्देनज़र इस एप के गलत इस्तेमाल को रोकने के भी इंतज़ाम किये गए हैं।
  • यह एप केवल आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन के बारे में काम करता है। तस्वीर लेने या वीडियो बनाने के बाद यूज़र्स को रिपोर्ट करने के लिये केवल पाँच मिनट का समय मिलता है और इसमें पहले से ली गई फोटोज़ या वीडियो अपलोड नहीं किये जा सकते।
  • हाई-टेक होने की दौड़ में cVIGIL एप के अलावा चुनाव आयोग ने और कई एडवांस तकनीकों को भी अपनाया है। इनमें नेशनल कंप्लेंट सर्विस, इंटीग्रेटेड कॉन्टैक्ट सेंटर, सुविधा, सुगम, इलेक्शन मॉनिटरिंग डैशबोर्ड और वन वे इलेक्ट्रॉनिकली ट्रांसमिटेड पोस्टल बैलट आदि शामिल हैं।
  • चुनाव आयोग आदर्श आचार संहिता तथा अन्य उपायों के ज़रिये चुनावों को निष्पक्ष और साफ-सुथरा बनाने के प्रयास लगातार करता रहता है और इसके लिये उसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सराहा भी गया है, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि भारत जैसे बड़े देश में चुनावों को केवल आदर्श आचार संहिता के रहमो-करम पर नहीं छोड़ा जा सकता है।

Saturday 26 October 2019

Sohrai

   सोहराई भारतीय राज्यों झारखंड , बिहार , छत्तीसगढ़ , ओडिशा और पश्चिम बंगाल का त्योहार है । यह एक फसल उत्सव है जो सर्दियों के फसल के मौसम की शुरुआत में आयोजित किया जाता है। यह झारखंड के सदान  और आदिवासी  द्वारा मनाया जाता है 
   यह अक्टूबर-नवंबर के महीने में  कार्तिक के अमावस्या को मनाया जाता है । कुछ क्षेत्रों में इसे मध्य जनवरी में भी मनाया जाता है। कार्तिक आमवस्या को जब हिन्दू , बौद्ध और जैन धर्मावलम्बी दीपोत्सव मनाते है ,तब यहां सोहराई मनाया जाता है। इसमें सभी पशुओं को नहलाया - धुलाया और गौशाला को सजाया जाता है। गौशाला के मार्ग में रंगों से अल्पना बनाकर पशुओ को  उसमे आदर सहित प्रवेश कराया जाता है। 

   रात्रि में उनके सींगों पर तेल और सिंदूर लगाते है और काली मुर्गी या सूअर की बलि देते है। अगले दिन गौशाला जाकर रंगुआ मुर्गे ( बांगने  वाला मुर्गा,) की बलि दी जाती है इसके बाद हंडिया का तपान दिया जाता है। पशुओं के लिए अनाजों से तैयार ' पखवा ' खिलाया जाता है और इसे लोगों द्वारा प्रसाद रूप में खाया जाता है। दोपहर को बरध खूंटा( पशु दौड़ ) को आयोजन किया जाता है। 



Thursday 17 October 2019

First Neurosurgeon : Jivaka

      जिवाका ( पाली : जिवाका कोमराभाका ; संस्कृत : जिवाका कुम्रभट्ट )  बुद्ध और भारतीय राजा बिम्बिसार के निजी चिकित्सक ( संस्कृत : वैद्य ) थे । वह 5 वीं शताब्दी ईसा पूर्व में , वर्तमान राजगीर , राजगृह में रहता था। कभी-कभी "मेडिसिन किंग" ( पिनयिन : यी वैंग ) के रूप में वर्णित  वह एक मॉडल हीलर के रूप में एशिया में प्रसिद्ध खातों में प्रमुखता से दिखाते हैं, और कई एशियाई देशों में पारंपरिक चिकित्सकों द्वारा उन्हें सम्मानित किया जाता है।
       ग्रंथों में, जिवाका को जटिल चिकित्सा प्रक्रियाओं का प्रदर्शन करते हुए दिखाया गया है, जिनमें मस्तिष्क सर्जरी के रूप में व्याख्या की जा सकती है। विद्वान इस बहस में हैं कि इन चित्रणों का ऐतिहासिक मूल्य किस सीमा तक है। बावजूद, जिवाका को पूरे एशियाई इतिहास में बौद्धों द्वारा सम्मानित किया जाता है, और कुछ हद तक एक चिकित्सक और बौद्ध संत के रूप में बौद्ध धर्म के बाहर चिकित्सकों द्वारा। भारत और चीन में कई मध्यकालीन चिकित्सा ग्रंथों और प्रक्रियाओं के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराया जाता है। वर्तमान दिन तक, जिक्का को भारतीयों और थाई द्वारा पारंपरिक चिकित्सा के संरक्षक के रूप में सम्मानित किया जाता है, और थाई पारंपरिक चिकित्सा से जुड़े सभी समारोहों में उनकी केंद्रीय भूमिका होती है। इसके अलावा, बौद्ध धर्म को मान्यता देने और उसे वैध बनाने में मदद करने के लिए जिक्का की महान व्यक्ति की महत्वपूर्ण भूमिका थी। जिवाका के खातों के कुछ विवरण स्थानीय मिलियनों को फिट करने के लिए समायोजित किए गए थे, जिसमें वे पारित किए गए थे। जिवाकर्मा मठ की पहचान चीनी तीर्थयात्री जुआन ज़ांग ने 7 वीं शताब्दी में की थी और इसकी खुदाई 19 वीं शताब्दी में की गई थी। वर्तमान में, यह पुरातात्विक अवशेषों के साथ सबसे पुराने बौद्ध मठों में से एक है जो अभी भी अस्तित्व में है।
जिवाका कई बौद्धों और पारंपरिक चिकित्सकों के लिए एक आइकन और प्रेरणा का स्रोत था।  जिवाका का आंकड़ा प्राचीन ग्रंथों में आध्यात्मिकता के साथ-साथ चिकित्सा के क्षेत्र में बौद्ध धर्म की श्रेष्ठता के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया गया है। Jīvaka सूत्र और Mūlasarvāstivāda संस्करण का वर्णन है कि जब Jīvaka बुद्ध को पूरा करती है, बाद में एक बयान करता है कि "मैं आंतरिक बीमारियों का इलाज है, आप बाहरी रोगों के इलाज", शब्द का इलाज ( पिनयिन : zhi ) भी अर्थ 'पर राज्य करने इस संदर्भ में '।  accounts ] मध्ययुगीन काल के दौरान, जिवाका के बारे में खातों का इस्तेमाल चिकित्सा पद्धतियों को वैध बनाने के लिए किया गया था। जल्दी बौद्ध ग्रंथों जो चीनी में अनुवाद किया गया है में, Jīvaka था deified और के रूप में बुद्ध और के लिए इस्तेमाल किया समान शब्दावली में वर्णित बोधिसत्व । उन्हें "मेडिसिन किंग" कहा जाने लगा, यह शब्द कई प्रसिद्ध चीनी चिकित्सकों के लिए इस्तेमाल किया गया था।  इस बात के प्रमाण हैं कि तांग राजवंश (century वीं -१० वीं शताब्दी) के दौरान, जिवाका की पूजा सिल्क रोड पर बच्चों के स्वास्थ्य के संरक्षक देवता के रूप में की गई थी।  आज, जिक्का को भारतीयों द्वारा पारंपरिक उपचार के संरक्षक के रूप में देखा जाता है,और इसे थाई लोग पारंपरिक थाई मालिश और चिकित्सा के निर्माता के रूप में देखते हैं । थाई लोग अभी भी उन्हें उपचार संबंधी बीमारियों में सहायता करने के लिए कहते हैं, और वे लगभग सभी समारोह में केंद्रीय भूमिका निभाते हैं जो पारंपरिक थाई चिकित्सा का हिस्सा है। जिवाका की थाईलैंड की कथित यात्रा के बारे में कई कहानियाँ मौजूद हैं


Friday 4 October 2019

Bharatiya Dalit Sahitya Academi


    

   भारतीय दलित साहित्य अकादमी की स्थापना 1984 में तत्कालीन डीआई द्वारा की गई थी। अन्याय, असमानता और अमानवीय व्यवहार के अंधेरे को कम करने के लिए बाबा साहब डॉ. बीआर अंबेडकर के अधूरे सपने को पूरा करने के लिए प्रधानमंत्री बाबू जगजीवन राम। और इसकी एकमात्र जिम्मेदारी संस्थापक अध्यक्ष के रूप में डॉ. एसपी सुमनक्षार को दी गई।
    अकादमी ने अपनी स्थापना के बाद पिछले 28 वर्षों के दौरान देश के हर कोने में अपनी गतिविधियों को बढ़ावा दिया है। 35 राज्यों में, शाखाएँ राज्य से ज़िलों में तहसीलों तक फैले एक शुद्ध कार्य के साथ घास-मूल को अवरुद्ध करने के लिए काम कर रही हैं, लगभग पाँच लाख रचनात्मक और सक्रिय विचारक, सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक, विद्वान, पत्रकार, इतिहासकार, जो लगे हुए हैं दलित साहित्य और सार्वजनिक सभा, सम्मेलनों, संगोष्ठियों, सेमिनारों, रैलियों, खेल और लेखन प्रतियोगिताओं, प्रदर्शनियों के माध्यम से दलित जनता, कमजोर वर्गों और देश के दबे-कुचले लोगों के बीच जागृति फैलाना। डॉ। अम्बेडकर स्टडी सर्कल, लाइब्रेरी एंड रीडिंग रूम, यूथ गाइड सेंटर, स्ट्रीट प्ले, ड्रामा, डिस्कशन और डिबेट्स आदि। लगभग 30 हजार ऐसे कार्यक्रम अकादेमी की विभिन्न शाखाओं द्वारा आयोजित किए जा चुके हैं।
      अकादेमी, जो मूल रूप से एक गैर-राजनीतिक संस्था है, ने मीडिया के माध्यम से लेखकों, कवियों, नाटककारों, पत्रकारों, उपन्यासकारों, कहानीकारों, साहित्यकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं आदि को मार्गदर्शन प्रदान करके वैज्ञानिक तरीके से दलित जागृति आंदोलन को संभालने की योजना बनाई है। कार्य की दुकान, सेमिनार, सम्मेलन और बैठकें विचारों का आदान-प्रदान, चर्चा आयोजित करना, शोध पत्र लिखना आदि और मान्यता और पहचान। और उन्हें डॉ। अंबेडकर, महात्मा जोतिबा फुले और भगवान बुद्ध के नाम पर विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित किया।

अकादमी द्वारा स्थापित पुरस्कार
अकादमी ने प्रत्येक वर्ष अपने राष्ट्रीय सम्मेलन में उत्कृष्ट योगदान के लिए विद्वानों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को सम्मानित करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर निम्नलिखित पुरस्कारों की स्थापना की है: -
1. डॉ. अंबेडकर अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार
2. डॉ. अम्बेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार
3. डॉ. अंबेडकर प्रतिष्ठित सेवा पुरस्कार
4. डॉ. अम्बेडकर फैलोशिप अवार्ड।

गुरुमत राष्ट्रीय पुरस्कार
1. भगवान बुद्ध राष्ट्रीय पुरस्कार।
2. गुरु रविदास राष्ट्रीय पुरस्कार।
3. संत कबीर राष्ट्रीय पुरस्कार।
4. महर्षि वाल्मीकि राष्ट्रीय पुरस्कार।
5. गुरु घासीदास राष्ट्रीय पुरस्कार।

राष्ट्रीय वीरता पुरस्कार
1. वीर एकलव्य राष्ट्रीय पुरस्कार
2. महासैनी बिरसा मुंडा राष्ट्रीय पुरस्कार।
3. वीरांगना झलकारी बाई राष्ट्रीय पुरस्कार।
4. शहीद उधम सिंह राष्ट्रीय पुरस्कार।
5. महात्मा ज्योतिबा फुले राष्ट्रीय पुरस्कार।

कला- संस्कृति राष्ट्रीय पुरस्कार
1. डॉ। अम्बेडकर कलश्री राष्ट्रीय पुरस्कार।
2. डॉ। अंबेडकर सेवाश्री राष्ट्रीय पुरस्कार।
3. डॉ। अंबेडकर साहित्यश्री राष्ट्रीय पुरस्कार।
4. डॉ। अम्बेडकर महामहिम राष्ट्रीय पुरस्कार।
बीडीएसए में अपस्टिल नाउ द्वारा प्रदान किए गए 270 डॉ. अंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार हैं। 540 डॉ. अम्बेडकर प्रतिष्ठित सेवा पुरस्कार और 12000 डॉ. अम्बेडकर फैलोशिप अवार्ड और 200 अन्य गौरवशाली विभिन्न पुरस्कार अपने-अपने क्षेत्रों में अपनी सेवाओं के लिए प्रमुख विद्वानों, लेखकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों आदि को प्रदान करते हैं।




Wednesday 2 October 2019

Gandhi & Jharkhand

       गाँधी जी का राष्ट्रिय आंदोलन में प्रवेश 1919 ई में हुआ। गांधीजी का अहिंसा पर आधारित असहयोग आंदोलन का समर्थन छोटानागपुर के लोगों ने भी किया। छोटानागपुर खास के टाना भगतों ने जो जतरा भगत के नेतृत्व में 1914 ई से पुनरुत्थानवादी आंदोलन चला रहे थे,1920 ई में गाँधी द्वारा प्रारंभ किये गए असहयोग आंदोलन में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया।

       1918 ई में रॉलेक्ट एक्ट का पुरे देश के साथ - साथ झारखण्ड में भी विरोध किया गया। 1925 में गांधीजी ने झारखण्ड की यात्रा की इस समय गांधीजी ने हज़ारीबाग के संत कोलम्बस कॉलेज में सभा की थी। 1925 ई में गांधीजी  सी एफ एंडूज के अनुरोध पर जमशेदपुर आये थे.                                                                           
       सविनय अवज्ञा आंदोलन के समय पुरे देश के साथ-साथ झारखण्ड में भी कुछ घटनाओं जैसे 1928 ई में साइमन कमीशन का विरोध , 1928 ई. का नेहरू रिपोर्ट ,1929 ई. के लाहौर कांग्रेस अधिवेशन में पूर्ण स्वराज की घोसणा ,गांधीजी द्वारा लार्ड इरविन के सामने रखे गए 11 सूत्री मांग को अस्वीकार कर देना आदि ने एक बड़े आंदोलन की भूमिका तैयार कर दी थी। 6 अप्रैल 1930 ई. को दांडी के समुद्र तट पर नमक बनाकर सविनय अवज्ञा आंदोलन की शुरुआत गांधीजी ने की। 13 अप्रैल को झारखण्ड में भी आंदोलनकारियों ने अनेक स्थानों पर नमक बनाकर नमक कानून को तोड़ा।                                                                                                    
       हज़ारीबाग के मोपना मांझी तथा चेतन महतो की मौत पटना कैम्प जेल में हो गयी थी, जिसके विरोध में हज़ारीबाग में 6 मार्च , 1932 ई को विरोध सभा का आयोजन किया गया था। नमक सत्याग्रह में हज़ारीबाग क्षेत में    संथाल जनजाति ने उल्लेखनीय भूमिका निभाई। 8 मार्च को डुमरी में संथालों सभा हुयी थी। संथाल        आंदोलनकारियों का नेतृत्व गोमिया के बोरोगेरा ग्राम का बंगम मांझी कर रहा था.                
      गांधीजी ने 1940 में व्यक्तिगत सत्याग्रह आंदोलन प्रारम्भ किया था। व्यक्तिगत सत्याग्रह के समय 1940 में गांधीजी अंतिम बार रांची आये थे तथा निवारण बाबू से मिलने निवारणपुर गए थे ,जहां उन्होंने एक सभा भी की थी।                                                                                                                             
       1942 ई के ' भारत छोडो आंदोलन ' में भी झारखण्ड में लोगों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। 14 अगस्त , 1942 को रांची के जिला स्कूल के विद्यार्थियों ने जुलूस निकालकर भारत छोडो आंदोलन की शुरुआत की। 18 अगस्त को टाना भगतों ने विशुनपुर थाना को जला दिया। आंदोलनकारियों ने 22 अगस्त को इटकी तथा टांगर बसली के बिच रेल की पटरी उखाड़ दी। अबरख की खानों में काम करने वाले श्रमिकों ने झुमरी तिलैया में जुलूस निकाला , जिसमे 113 लोग गिरफ्तार किये गए डोमचांच में भी एक जुलूस निकाला गया।,जिस पर पुलिस ने गोली चलाई जिसमे 2 व्यक्ति मारे गए तथा 22 लोग घायल हुए।                                                                  

Tuesday 1 October 2019

Bouddh Dhamm - jharkhand

      बौद्ध धर्म का झारखण्ड क्षेत्र से गहरा संबंध है। डॉ वीरोत्तम ने अपनी रचना ' झारखण्ड :इतिहास एवं संस्कृति ' में गौतम बुद्ध की जन्म भूमि झारखण्ड को बताया है ,जिसे तथ्य नकारते है। इसका प्रमाण पलामू के मुर्तिया गांव से प्राप्त सिंह मस्तक है। यह अवशेष वर्तमान में रांची विश्वविद्यालय संग्रहालय में सुरक्षित है तथा साँची में स्थित बौद्ध स्तूप पर उत्कीर्ण सिंह मस्तिष्क से काफी समानता रखता है। धनबाद जिले में करुआ ग्राम का बौद्ध स्तूप ,स्वर्णरेखा नदी के तट पर डालमी एवं कंसाई नदी के तट पर बुद्धपुर में बौद्ध धर्म से सम्बंधित अनेक अवशेष पाए गए है।
     


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झारखण्ड और पश्चिम बंगाल के सीमा क्षेत्रों पर लाथोंटोंगरी पहाड़ी में बेंग्लर ने चैत्य तथा पकबिरा में आर सी बोकन ने बौद्ध खंडहर की खोज की है। चैत्य बौद्ध धर्म का पवित्र पूजा स्थल होता है। 1919 ई में ए शास्त्री ने बाग में काले चिकने पत्थर की बुद्ध मूर्ति की खोज की थी, जिसकी दोनों भुजायँ टूटी हुई है। 
            खूंटी जिले के वेलवादाग ग्राम से बौद्ध विहार का अवशेष प्राप्त हुआ है। यहां से प्राप्त ईंट साँची के स्तूप में प्रयुक्त ईंट एवं मौर्यकालीन ईंटों के समान है। गुमला जिले के कटूंगा गांव ,पूर्वी सिंघभूम के भुला ग्राम से बुद्ध की प्रतिमा तथा पूर्वी सिंहभूम के ईचागढ़ से स्कूल के दीवार से महासिरि तारा की एक प्रतिमा प्राप्त हुई है ,1984 से यह प्रतिमा रांची संग्रहालय में सुरक्षित है। राजमहल क्षेत्र स्थित कांकजोल से बुद्ध की मूर्ति की खोज कनिंघम द्वारा की गई है। छात्र जिले के ईटखोरी में भद्रकाली मंदिर परिसर से बुद्ध की चार प्रतिमायें प्राप्त हुई है। ये प्रतिमाएं सातवीं सदी की है। तथा विभिन्न मुद्राओ में है। ये मूर्तियां बालू पत्थर की है, जो हर्षवर्द्धन कालीन प्रतीत होती है। गौतम बुद्ध बोधगया में ज्ञान प्राप्ति (बोधत्व ) के बाद 45 वर्षों तक जिन क्षेत्रों में ज्ञान का उपदेश देते रहे उनमे झारखण्ड क्षेत्र भी शामिल था। 
             कुषाण वंश के सर्वश्रेष्ठ शासक कनिष्क के सिक्के रांची के आसपास के क्षेत्र से प्राप्त हुआ है। महायान बौद्धधर्म को प्रश्रय देने वाले शासक कनिष्क ने लगभग सम्पूर्ण बिहार - झारखण्ड क्षेत्र पर शासन स्थापित कर लिया था। इस तरह कनिष्क के समय तक झारखण्ड क्षेत्र में बौद्धधर्म फल - फूल रहा था ,जब गुप्त वंश के समय विशेषकर समुद्रकाल के काल में वैष्णव धर्म का उद्धभव एवं प्रभाव इस क्षेत्र में पड़ने लगा तब बौद्ध धर्म का प्रभाव शिथिल होने लगा। गुप्त वंश के पतन के बाद जब इस क्षेत्र पर कट्टर शैव शासक बंगाल के शशांक का शासन स्थापित हुआ तब उसने कई बौद्ध स्थलों को नष्ट कर दिया। 
      पुना बौद्ध धर्म के संरक्षक शासकों हर्षवर्धन एवं पाल वंश के समय झारखण्ड क्षेत्र पर बौद्ध धर्म के प्रभाव में वृद्धि हुई।